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इमाम हुसैन की याद का पर्व है चेहल्लुम

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रामनगर,रागिब खान।सन् 61 हिजरी  (680ई़) मुहर्रम के महीने की 10 तारीख को मैदाने कर्बला ( इराक़) की सर जमीन पर एक हक और बातिल के बीच जंग हुई, जिसमें पैगम्बर मुहम्मद साहब के नवासे अपने 71 साथी उस समय के ज़ालिम बादशाह यजीद पलीद ( जिसके ज़ुल्म के किस्से बहुत मशहूर हैं,यहां तक कि उसकी फौज ने खाना_ए_  काबा तक में आग लगा दी थी। 22000 सैनिकों से हक यानी दीने इस्लाम के लिए लडे़ और शहीद हो गए हुए।
इमाम हुसैन व उनके 71 अनुयायियों की शहादत के चालीस दिन बाद उनके चेहलुम की फातिहा हुई ।इसी परम्परा के चलते  रविवार को उनके और उनके साथियों की शहादत को एक बार फिर याद किया गया।
बतादें कि हजरत इमाम हुसैन ने ज़ालिम बादशाह को रोकने और इस्लाम और मानवता के लिए यजीदियों की यातनाएं सही। और अपने छोटे- छोटे बच्चों सहित करबला के मैदान में हुसैन ने अपनी जान की कुर्बानी दे दी और यजीद के ज़ुल्म को रोक दिया।
 मानवता और ईमान के लिए सब कुछ कुर्बान कर दिया 
करबला की जंग देखने में एक छोटी सी जंग थी, लेकिन यह जंग दुनिया की सबसे बड़ी जंग साबित हुई। जिसमें मुट्ठी भर लोगों ने अपनी शहादत देकर दुनिया को एक रोशनी दिखाई और रेहती दुनिया तक ज़ालिम बादशाहों से लड़ने का हौसला दिया।
 शहीद हो कर इस्लाम का परचम लहराया । यजीद ने केवल मोर्चा जीता था,लेकिन जिंदगी की जंग तो वह  हमेशा के लिए हार गया था। हजरत इमाम हुसैन ने शहादत कबूल करके ये पैगाम दिया, कि शहादत मौत नहीं है, बल्कि वह ज़िन्दगी है, जिसकी फजीलत कुरान मजीद में बताई गई है।
  इसलिए तमाम लोगों को चाहिए कि वह इमामे हुसैन और उनके साथियों की जीवनी जरुर पढ़े ताकि उन्हें रोशनी मिले।

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